शनिवार, 10 मार्च 2012

हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं.

ग़ज़ल
आलम खुरशीद
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हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं
भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं !

पीछे छूटे साथी मुझ को याद आ जाते हैं
वरना दौड़ में सब से आगे हो सकता हूँ मैं

इक छोटा सा बच्चा मुझमें अबतक ज़िंदा है
छोटी छोटी बात पे अब भी रो सकता हूँ मैं !!

कब समझेंगे जिन की खातिर फूल बिछाता हूँ
इन रस्तों पर काँटे भी तो बो सकता हूँ मैं !!!!!

सन्नाटे में दहशत हर पल गूंजा करती है
इस जंगल में चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं

सोच समझ कर चट्टानों से उलझा उन वरना
बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं !!!!!

गुरुवार, 8 मार्च 2012

हर घर में कोई तहखाना होता है.

लुत्फ़ हम को आता है अब फ़रेब खाने में (ग़ज़ल)

ग़ज़ल
आलम खुरशीद
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लुत्फ़ हमको आता है अब फ़रेब खाने में
आज़माए लोगों को रोज़ आज़माने में !!

दो घड़ी के साथी को हमसफ़र समझते हैं
किस क़दर पुराने हैं हम नए ज़माने में !!

तेरे पास आने में आधी उम्र गुज़री है
आधी उम्र गुज़रेगी तुझसे दूर जाने में

एहतियात रखने की कोई हद भी होती है
भेद हम ने खोले हैं, भेद को छुपाने में !!!

ज़िन्दगी तमाशा है और इस तमाशे में
खेल हम बिगाड़ेंगे , खेल को बनाने में


जिसे पाया नहीं जाता, उसे खोया नहीं जाता. (ग़ज़ल)

ग़ज़ल
आलम खुरशीद
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हमेशा दिल में रहता है कभी गोया नहीं जाता
जिसे पाया नहीं जाता , उसे खोया नहीं जाता

कुछ ऐसे ज़ख्म हैं जिनको सभी शादाब रखते हैं
कुछ ऐसे दाग़ हैं जिन को कभी धोया नहीं जाता

अजब सी गूँज उठती है दरो-दीवार से हर दम
ये उजड़े ख़्वाब का घर है यहाँ सोया नहीं जाता

बहुत हँसने की आदत का यही अंजाम होता है
कि हम रोना भी चाहें तो कभी रोया नहीं जाता

ज़रा सोचें ! ये दुनिया किस क़दर बेरंग हो जाती
अगर आँखों में कोई ख़्वाब ही बोया नहीं जाता